खास वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहते राजनीतिक दल
City24News/नरवीर यादव
फरीदाबाद | सवाल यह है कि क्या भारत में बहुसंख्यक आस्था को केवल इसलिए सीमित किया जा सकता है कि कुछ राजनीतिक दल अपने वोट-बैंक को नाराज़ नहीं करना चाहते? क्या न्यायाधीश केवल इसलिए निशाने पर होंगे कि उन्होंने संविधान और न्यायिक मर्यादा के आधार पर निर्णय दिया, न कि राजनीतिक सुविधा के अनुसार? विपक्ष को समझना होगा कि तिरुप्परनकुंद्रम की पहाड़ी केवल एक पहाड़ी नहीं, वह आस्था का स्रोत है। वहाँ दीप जलाना किसी समुदाय के खिलाफ नहीं, बल्कि एक परंपरा का निर्वाह है। इसे रोकना और फिर इसे अनुमति देने वाले न्यायाधीश को निशाना बनाना, दोनों ही लोकतांत्रिक मर्यादाओं के विपरीत हैं। विपक्ष को चाहिए कि सनातन पर प्रहार और न्यायपालिका पर दबाव के जरिये भारत की अवधारणा को कमजोर नहीं करे।
हम आपको बता दें कि 1 दिसंबर को न्यायमूर्ति जीआर स्वामीनाथन ने हिंदू तमिलर कच्ची के संस्थापक राम रविकुमार की याचिका पर आदेश देते हुए भक्तों को तिरुप्परनकुंद्रम पहाड़ी पर स्थित दीपथूण पर दीप जलाने की अनुमति दी थी। लेकिन 3 दिसंबर के कार्तिगई दीपम उत्सव के दिन प्रशासन ने उन्हें रोक दिया जिसके बाद रविकुमार ने अवमानना याचिका दायर की। उसी दिन न्यायमूर्ति स्वामीनाथन ने दस भक्तों को दीपथूण तक जाने और वहाँ दीप प्रज्ज्वलित करने की अनुमति दी तथा उनकी सुरक्षा के लिए सीआईएसएफ कवर प्रदान करने का निर्देश दिया। इसके बावजूद पुलिस ने समूह को रोक दिया और राज्य सरकार ने अवमानना कार्यवाही से बचने के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
हम आपको बता दें कि इस मामले की जड़ें लगभग सौ वर्ष पुरानी हैं। तिरुप्परनकुंद्रम पहाड़ी, जो भगवान मुरुगन के छह प्रमुख पवित्र स्थलों (अरुपडई वीड़कु) में से एक है, वहां पर स्थित मंदिर और एक दरगाह के बीच 1920 से ही स्वामित्व और धार्मिक अधिकारों को लेकर विवाद रहा है। उस समय सिविल कोर्ट और बाद में प्रिवी काउंसिल ने पहाड़ी को मंदिर सम्पत्ति घोषित किया था। किंतु दीप प्रज्ज्वलन की परंपरा को लेकर न्यायालय ने 1996 में यह कहा था कि पारंपरिक स्थान मंदिर परिसर का उचिपिल्लैयार कोविल मंडपम है; हालांकि भविष्य में किसी वैकल्पिक स्थान पर दीप प्रज्ज्वलन की अनुमति HR&CE विभाग द्वारा दी जा सकती है, बशर्ते वह दरगाह से दूर हो।
इसके बाद भी दीपथूण को पारंपरिक स्थल बताकर कई याचिकाएँ दायर हुईं, जिन पर 2014 और 2017 में उच्च न्यायालय ने यह दोहराया था कि मंदिर प्रबंधन ही धार्मिक परंपराओं और स्थलों का निर्धारण करेगा। लेकिन इस वर्ष पुनः इस विवाद ने जोर पकड़ा और राजनीतिक रंग ले लिया। राज्य सरकार ने उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की खंडपीठ में अपील दायर कर दी है। वहीं 5 दिसंबर को खंडपीठ ने मंदिर प्रबंधन का पक्ष रखते हुए यह चेतावनी दी कि न्यायपालिका का अपमान करने वाली टिप्पणियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इसके बाद 9 दिसंबर को अदालत ने तमिलनाडु के मुख्य सचिव और एडीजीपी (कानून-व्यवस्था) को 17 दिसंबर को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से उपस्थित होने का आदेश दिया, क्योंकि प्रशासन ने न्यायालय के पूर्व आदेशों का पालन नहीं किया।
सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि तिरुप्परनकुंद्रम पहाड़ी का इतिहास केवल मंदिर-प्रशासन से जुड़ा मामला नहीं है, बल्कि यह हिंदू आस्था का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र है जहाँ सदियों से भक्तों की उपस्थिति रही है। 1920 के सिविल डिक्री और प्रिवी काउंसिल के निर्णय ने स्पष्ट कहा था कि पहाड़ी मंदिर की संपत्ति है तथा दरगाह उससे केवल कुछ सीमित हिस्सों में सम्बद्ध है। यह तथ्य अपने आप में बताता है कि दीपथूण पर दीप जलाना मंदिर-परिसर के भीतर ही धार्मिक अनुष्ठान का एक स्वाभाविक हिस्सा है।
फिर भी, पिछले तीन दशकों में दीपथूण को लेकर विवाद गहराता गया और प्रशासन ने अक्सर सुरक्षा या साम्प्रदायिक संवेदनशीलता का हवाला देकर हिंदू परंपराओं को सीमित किया। यह वही मानसिकता है जो डीएमके और उसके सहयोगियों की राजनीति में बार-बार दिखाई देती है, जहाँ बहुसंख्यक आस्था को दबाकर तुष्टिकरण को राजनीतिक लाभ का साधन बना दिया जाता है। यह संयोग नहीं है कि वही दल, जिसके नेताओं ने अनेक बार सनातन धर्म को नष्ट करने योग्य कहा, वही आज दीपथूण में दीप जलाने का विरोध कर रहा है।
यहाँ प्रश्न केवल परंपरा का नहीं, बल्कि अधिकारों का है। जब उच्च न्यायालय का स्पष्ट आदेश मौजूद था कि भक्त दीपथूण पर दीप जला सकते हैं, तब राज्य सरकार द्वारा उसे लागू न करना न केवल न्यायालय की अवमानना है बल्कि धार्मिक स्वतंत्रता का खुला हनन भी है। जिस प्रकार अदालत ने पुलिस और प्रशासन को फटकारते हुए कहा कि न्यायपालिका का अपमान बर्दाश्त नहीं होगा, वह बताता है कि सरकार किस हद तक अपनी सीमाएँ भूल चुकी है।
लेकिन इससे भी खतरनाक कदम था 107 विपक्षी सांसदों द्वारा न्यायाधीश को हटाने का प्रस्ताव। यह केवल असहमति का मुद्दा नहीं, बल्कि न्यायपालिका को धमकाने का सीधा प्रयास है। अगर किसी निर्णय से असहमति हो तो अपील का मार्ग उपलब्ध है; परन्तु न्यायाधीश की नीयत पर प्रश्नचिह्न लगाना और उन्हें राजनीतिक विचारधारा से जोड़कर हटाने का प्रयास करना लोकतांत्रिक संस्थाओं को अस्थिर करने जैसा है। यह न्यायपालिका को संदेश देता है कि धार्मिक मामलों पर निर्णय देते समय राजनीतिक दबाव को ध्यान में रखना पड़ेगा, जो कि किसी भी स्वतंत्र न्यायिक व्यवस्था के लिए विषाक्त है।
