बेपरवाह अग्निकांड़ों से डरता दिल

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गुजरात के राजकोट में एक एम्यूजमेंट पार्क के अंदर गेमिंग जोन में लगी आग की लपटें अभी ठीक से बुझी भी नहीं थीं कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बच्चों के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में आग लगने से सात नवजात बच्चों की जान चली गयी। दोनों ही घटनाओं में हताहत होने वालों में ज्यादातर छोटे बच्चे हैं। निश्चित रूप से ये हादसे प्रशासनिक लापरवाही की उपज हैं, यही कारण है कि सिस्टम में खामियों और ऐसी आपदाओं को रोकने में सरकारी अधिकारियों की लापरवाही की निंदा की जा रही है। यह याद रखने योग्य है कि नियमित अंतराल पर मानवीय जिम्मेदारी वाले पहलू की अनदेखी से ऐसी गंभीर घटनाएं होने के बावजूद अधिकारियों की उदासीनता और लापरवाही कम होती नहीं दिख रही है। इन जहरीली काली आग ने कितने ही परिवारों के घर के चिराग बुझा दिए। कितनी ही आंखों की रोशनी छीन ली और एक कालिख पोत दी कानून और व्यवस्था के कर्णधारों के मुँह पर। ‘अग्निकांड’ एक ऐसा शब्द है जिसे पढ़ते ही कुछ दृश्य आंखांे के सामने आ जाते हैं, जो भयावह होते हैं, त्रासद होते हैं, डरावने होते हैं। जीवन का हर पल दुर्घटनाओं का शिकार हो रहा है। दुर्घटनाओं को लेकर आम आदमी में संवेदनहीनता की काली छाया का पसरना हो या सरकार की आंखों पर काली पट्टी का बंधना-हर स्थिति में मनुष्य जीवन के अस्तित्व एवं अस्मिता पर सन्नाटा पसर रहा है।

इन दोनों मामलों में शुरुआती सूचनाएं ही संदेह का पुख्ता आधार प्रदान कर रही हैं। मसलन, यह बताया गया कि राजकोट के प्राइवेट एम्यूजमेंट पार्क में चल रहे गेमिंग जोन को फायर एनओसी नहीं मिला था। इसके बावजूद यह गेमिंग जोन धड़ल्ले से चल रहा था, बड़ी संख्या में बच्चे यहां महंगे टिकट लेकर आ रहे थे और अगर आग लगने की यह घटना न होती तो पता नहीं कब तक सब कुछ ऐसे ही चलता रहता। ठीक इसी तरह दिल्ली के बेबी केयर सेंटर की आग की घटना ने सभी को झकझोर कर रख दिया है। एनआईसीयू में वेंटिलेटर पर ही 7 नवजात ने दम तोड़ दिया। आग की लपटें इतनी तेज थी कि बच्चों को पीछे के रास्ते से बड़ी मुश्किल से निकाला गया। 5 बेड की क्षमता वाले हॉस्पिटल में 12 बच्चों का इलाज हो रहा था। जाहिर है, एक बेड पर दो या तीन बच्चे थे। आग लगने, हॉस्पिटल के मिस मैनेजमेंट और लापरवाही का क्या स्थानीय प्रशासन को अंदाजा नहीं होना चाहिए कि उसके कार्यक्षेत्र में किस तरह के व्यवसाय कानूनी प्रक्रियाओं की अनदेखी करते हुए चलाए जा रहे हैं? प्रश्न है कि इन बढ़ती दुर्घटनाओं की नृशंस चुनौतियों का क्या अंत है? बहुत कठिन है दुर्घटनाओं की उफनती नदी में जीवनरूपी नौका को सही दिशा में ले चलना और मुकाम तक पहुंचाना, यह चुनौती सरकार के सम्मुख तो है ही, आम जनता भी इससे बच नहीं सकती। इन दोनों अग्निकांड़ों में पीड़ितजन तो सहानुभूति के पात्र हैं ही, पर इन घटनाओं के लिए सहानुभूति की पात्र देश की जनता भी है, जो भ्रष्ट, लापरवाह एवं लालची प्रशासनिक चरित्रों को झेल रही हैै। मनुष्य अपने स्वार्थ और रुपए के लिए इस सीमा तक बेईमान और बदमाश हो जाता है कि हजारों के जीवन और सुरक्षा से खेलता है। दो-चार परिवारों की सुख समृद्धि के लिए अनेक घर-परिवार उजाड़ देता है।

राजकोट हो या राजधानी में प्राइवेट संस्थानों में आग लगना- बेकसूर लोगों के मारे जाने की घटनाएं कोई नई या चौंकाने वाली बात नहीं है। कभी कोई फैक्ट्री इस वजह से सुर्खियों में आती है तो कभी कोचिंग संस्थान। कभी कोई अस्पताल तो कभी एम्यूजमेंट पार्क। घटना के बाद पता चलता है कि वे संस्थान तमाम कानूनी प्रक्रियाओं को ताक पर रखते हुए चलाए जा रहे थे। यही वजह है कि दोनों ही मामलों में तत्काल जांच के आदेश दे दिए गए। मगर आम तौर पर ऐसे आदेश घटना से उपजे असुविधाजनक एवं ज्वलंत सवालों की ओर से लोगों का ध्यान हटाने भर का काम करते हैं। आसमान से बरसती आग के बीच शनिवार को हुए इन दोनों अग्निकांडों में मासूमों व बच्चों की मौत ने हर संवेदनशील व्यक्ति को झकझोरा है। तंत्र की काहिली और आपराधिक लापरवाही के चलत ऐसेे हादसे होते हैं जिनमें भ्रष्टाचार पसरा होता है, जब अफसरशाह लापरवाही करते हैं, जब स्वार्थ एवं धनलोलुपता में मूल्य बौने हो जाते हैं और नियमों और कायदे-कानूनों का उल्लंघन होता है।

आग क्यों और कैसे लगी, यह तो जांच का विषय है ही लेकिन इन व्यावसायिक इकाइयों को उसके मालिकों ने मौत का कुआं बना रखा था। आखिर क्या वजह है कि जहां दुर्घटनाओं की ज्यादा संभावनाएं होती हैं, वही सारी व्यवस्थाएं फेल दिखाई देती है? सारे कानून कायदों का वहीं पर स्याह हनन होता है। हर दुर्घटना में गलती भ्रष्ट आदमी यानी अधिकारी एवं व्यवसायी की ही होती है पर कारण बना दिया जाता हैं पुर्जों व उपकरणों की खराबी को। जैसे-जैसे जीवन तेज़ होता जा रहा है, सुरक्षा उतनी ही कम हो रही है, जैसे-जैसे प्रशासनिक सर्तकता की बात सुनाई देती है, वैसे-वैसे प्रशासनिक कोताही के सबूत सामने आते हैं, मरने वालों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन हर बड़ी दुर्घटना कुछ शोर-शराबें के बाद एक और नई दुर्घटना की बाट जोहने लगती है। सरकार और सरकारी विभाग जितनी तत्परता मुआवजा देने में और जांच समिति बनाने में दिखाते हैं, अगर सुरक्षा प्रबंधों में इतनी तत्परता दिखाएं तो दुर्घटनाओं की संख्या घट सकती है। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है, क्यों नहीं हो रहा है, यह मंथन का विषय है।

राजधानी दिल्ली ही नहीं, देश में हर जगह कानूनों एवं व्यवस्थाओं की धज्जियां उड़ते हुए देखा जा सकता है। इंसान का जीवन कितना सस्ता हो गया है। अपने धन लाभ के लिये कितने इंसानों के जीवन को दांव पर लगा देता है। मालिकों से ज्यादा दोषी ये अधिकारी और कर्मचारी हैं। अगर ये अपनी जिम्मेदारी को पूरी ईमानदारी से निभाते तो उपहार सिनेमा अग्निकांड नहीं होता, नन्दनगरी के समुदाय भवन की आग नहीं लगती, पीरागढ़ी उद्योगनगर की आग भी उनकी लापरवाही का ही नतीजा थी। बात चाहे पब की हो या रेल की, प्रदूषण की हो या खाद्य पदार्थों में मिलावट की-हमें हादसों की स्थितियों पर नियंत्रण के ठोस उपाय करने ही होंगे। तेजी से बढ़ता हादसों का हिंसक एवं डरावना दौर किसी एक प्रान्त या व्यक्ति का दर्द नहीं रहा। इसने हर भारतीय दिल को जख्मी किया है। इंसानों के जीवन पर मंडरा रहे मौत के तरह-तरह की डरावने हादसों एवं दुर्घटनाओं पर काबू पाने के लिये प्रतीक्षा नहीं, प्रक्रिया आवश्यक है। स्थानीय निकाय हो या सरकारें, लाइसेंसिंग विभाग हो या कानून के रखवाले- अगर मनुष्य जीवन की रक्षा नहीं की जा सकती तो फिर इन विभागों का फायदा ही क्या? कौन नहीं जानता कि ये विभाग कैसे काम करते हैं। सब जानते हैं कि प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर इंस्पैक्टर आते हैं और बंधी-बंधाई राशि लेकर लौट जाते हैं। लाइसेंसिंग विभाग में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार है। नैतिकता और मर्यादाओं के इस टूटते बांध को, लाखों लोगों के जीवन से खिलवाड़ करते इन आदमखोरों से कौन मुकाबला करेगा? कानून के हाथ लम्बे होते हैं पर उसकी प्रक्रिया भी लम्बी होती है। कानून में अनेक छिद्र हैं। सब बच जाते हैं। सजा पाते हैं गरीब आश्रित, निर्दोष अभिभावक जो मरने वालों के पीछे जीते जी मर जाते हैं। पुलिस ”व्यक्ति“ की सुरक्षा में तैनात रहती है ”जनता“ की सुरक्षा में नहीं। भ्रष्ट अधिकारी नोट जुगाड़ने की कोशिश में रहते हैं, जनता की सुरक्षा के लिये नहीं। भ्रष्टाचार शासन एवं प्रशासन की जड़ों में पेठा हुआ है, इन विकट एवं विकराल स्थितियों में एक ही पंक्ति का स्मरण बार बार होता है, “घर-घर में है रावण बैठा इतने राम कहां से लांऊ”। भ्रष्टाचार, बेईमानी और अफसरशाही इतना हावी हो गया है कि सांस लेना भी दूभर हो गया है।

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