गुलियन बैरे सिंड्रोम एक घातक बीमारी है जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली पर प्रहार करती है
सचेत रहना जरूरी है, समय व्यतीत होेने के साथ-साथ हो जाते हैं मरणासन जैसे हालात
प्लैज्मा फेरेसिस और इन्यूनोग्लोबुलिन इंजेक्शन से बीमारी पर पाया जाता है काबू
City24news/सुनील दीक्षित
कनीना | गुलियन बैरे सिंड्रोम,जीबीएस एक ऐसी विकृति है जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली, परिधीय तंत्रिका तंत्र के कुछ हिस्सों पर हमला करती है। इस बीमारी के लक्षणों में कम या ज्यादा कमजोरी, हाथ-पैरों में झुनझुनी महसूस होना शामिल है। यह कमजोरी प्राय हाथों और शरीर के ऊपरी हिस्सों से शुरू होती है जिससे शरीर स्थूल होने के साथ-साथ दर्द महसूस होता है। विशेषज्ञों की राय के मुताबिक भारत में करीब 2-3 फीसदी लोग इस बीमारी से ग्रस्त हो रहे हैं। यह बीमारी तीव्रता से बढ़ती जाती है और बढ़ते-बढ़ते स्थिति ऐसी पैदा हो जाती है कि व्यक्ति अपनी मांसपेशियों का बिलकुल भी उपयोग नहीं कर पाता। नर्व सिस्टम को पूरी तरह कंडम कर देता है। चिकित्सकीय दृष्टि से जीबीएस मरीज की हालत गंभीर हो जाती है। समय रहते मरीज को उपचार नहीं मिलने पर बेहोशी की हालत में पहुंच जाता है। मरीज को सांस लेने में सहूलियत देने के लिए उसे संवातक पर रखा जाता है। बहरहाल, उपचार के बाद अधिकतर लोग इस गंभीर बीमारी के लक्षणों से उबर जाते हैं, जिसे सामान्य स्थिति में आने के लिए अत्यधिक समय लग जाता है। जीबीएस के मरीज को चिकित्सकीय उपचार के बाद लगातार फिजियोथैरेपी करना उचित दवा माना गया है। हालांकि कुछ लोगों में थोड़ी-बहुत अशक्तता बनी रह जाती है।
जीबीएस लाखों लोगों में किसी एकआध व्यक्ति को ही होती है
आमतौर पर इस बीमारी के संलक्षण मरीज में श्वसन या जठरांत्रीय विषाणु संक्रमण के लक्षण दिखने के कुछ दिनों या हफ्तों बाद प्रकट होते हैं। कभी-कभार शल्यक्रिया या टीका लगाने से भी इसके लक्षण उभर जाते हैं। यह विकृति कुछ घंटों या कुछ दिनों में विकसित हो जाती है। इसके विकसित होने में तीन-चार हफ्ते भी लग सकते हैं। कुछ लोग गुलियन बेरी सिंड्रोम संलक्षण के शिकार क्यों होते हैं ? जबकि दूसरे नहीं होते, इसका कारण अभी तक ज्ञात नहीं है। वैज्ञानिकों को इतना मालुम हुआ है कि शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली कभी-कभी शरीर पर ही हमला करने लगती है तब ऐसे हालात पैदा होते हैं।
जीबीएस संलक्षण का कोई ज्ञात उपचार नहीं है। लेकिन उपचार से ज्यदातर मरीजों की बीमारी की गंभीरता कम की जा सकती है और उनका स्वास्थ्य लाभ तेज किया जा सकता है। इसकी वजह से पैदा होने वाली जटिलताओं का उपचार कई तरह से किया जाता है। फिलहाल प्लैज्मा फेरेसिस और इन्यूनोग्लोबुलिन इंजेक्शन की बड़ी खुराकें दी जाती हैं। जो न्यूरोलॉजिस्ट चिकित्सक की देखरेख में मरीज की आयु व उसके वजन के मुताबिक निर्धारित की जाती हैं। वैज्ञानिक प्ररिरक्षा प्रणाली की कार्यविधि समझने और यह जानने के प्रयास कर रहे हैं कि वे कोशिकाएं कौन-सी हैं जो तंत्रिका तंत्र पर हमला करती हैं।
सवाई मानसिंह चिकित्सा महाविद्यालय जयपुर में कार्यरत न्यूरोलॉजी विभाग के चिकित्सक अभिषेक भार्गव के मुताबिक यह सिंड्रोमिक वायरस है। बीमारी का इलाज लेने के बाद यथास्थिति में आने के लिए मरीज को मैडीसन के अलावा फिजियोथैरेपी की अधिक जरूरत होती है।
रेवाड़ी में स्थित न्यूरोलॉजी के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ राकेश नैथानी का मानना है कि कैम्पिलोबैक्टर जेजुनी नामक बैक्टिरिया से संक्रमण से दस्त लगते हैं,जो जीबीएस का सबसे अहम कारण बनता है। ये स्थिति पहाड़ चढ़ने, गर्मी में लंबी दूरी की पैदल यात्रा करने, कठोर शारीरिक कार्य करने, बाजार का दूषित खाना इस्तेमाल करने आदि से पनप सकती है। इसकी शुरुआत सामान्यतया हाथों व पैरों से होती है। समय रहते इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है। महेंद्रगढ़ के फिजियोथैरेपिस्ट डॉ.राजेश शर्मा ने कहा कि मरीज को शरीर की खोई हुई शक्ति वापस प्राप्त करने के लिए फिजियोथैरेपी करवाना महत्वपूर्ण दवा है। ककराला निवासी थैरेपिस्ट बलजीत सिंह ने बताया कि शारिरिक विकार उत्पन्न होने पर मैडीसन के साथ थैरेपी करवाना भी दवा का हिस्सा है। इस विधि से शरीर की जटिलताएं कुछ समय में सामान्य की जा सकती हैं।