दलित कैदियों को न्याय की नई उम्मीद मिली
सुप्रीम कोर्ट ने औपनिवेशिक काल के कई जेल नियमों को रद्द किया
City24news/ब्यूरो
नई दिल्ली। दलित कैदियों को अब जेलों में न्याय की उम्मीद जगी है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए देश भर के जेल मैनुअल में मौजूद कई औपनिवेशिक काल के नियमों को रद्द कर दिया है। इन नियमों को श्रम के जाति-आधारित विभाजन को मजबूत करने वाला बताया गया था, जो विशेष रूप से हाशिए पर मौजूद समुदायों को निशाना बनाते थे। यह फैसला दलित कार्यकर्ताओं और कैदियों द्वारा सालों से जेलों में व्याप्त जातिगत भेदभाव की शिकायतों के बाद आया है।
दलित कार्यकर्ता दौलत कुंवर, जिन्हें कई बार जेल भेजा जा चुका है, बताते हैं कि जेल के अंदर जातिगत भेदभाव आम बात है। कुंवर का आरोप है कि जेल में कैदियों की जाति के आधार पर उन्हें काम सौंपा जाता है, जहां दलितों को अक्सर सफाई जैसे काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। टीओआई से बातचीत में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की जेलों में समय बिता चुके अन्य कैदियों और विचाराधीन कैदियों ने भी कुंवर के दावों का समर्थन किया।
हापुड़ निवासी 43 वर्षीय इंदर पाल ने जेल में अपने 67 दिनों के अनुभव को साझा करते हुए बताया कि उन्हें दो हफ्ते तक झाड़ू लगाने के लिए मजबूर किया गया और बीमार होने पर बिना ब्रश के शौचालय साफ करने को कहा गया। गैरकानूनी हथियार रखने के आरोप में उत्तर प्रदेश की एक जेल में सात दिन बिताने वाले 23 वर्षीय मोनू कश्यप बताते हैं कि कम जाति के कैदियों को सीमित भोजन दिया जाता था जबकि अन्य को पर्याप्त मात्रा में भोजन मिलता था। 38 वर्षीय राम बहादुर सिंह, जो उत्तर प्रदेश की ही एक जेल में बंद थे, ने कहा कि दलित कैदियों को अक्सर भोजन के लिए अलग कतार में खड़ा किया जाता था। उन्होंने कहा, यह ऐसा है जैसे हमें जानवरों की तरह बचा हुआ खाना खिलाया जाता है।
पुलिस ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सराहा
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पुलिस अधिकारियों ने भी सराहा है। उत्तर प्रदेश के डीजीपी प्रशांत कुमार ने इस फैसले को ‘भारतीय जेलों के अंदर श्रम की गरिमा को बहाल करने की दिशा में एक साहसिक कदम’ बताया है। उन्होंने कहा कि यह फैसला सदियों से चली आ रही जाति और व्यवसाय के गलत मिलाप को खत्म करने का आह्वान करता है, जिसने पूरे समुदायों को दासता और अपमान के जीवन में धकेल दिया है। डीजीपी ने कहा कि यह फैसला अनुच्छेद 21 में निहित न्याय की उम्मीद जगाता है और जेलों में जाति-आधारित श्रम की जंजीरों को तोड़ने और समानता को बढ़ावा देने वाले सुधारों का आग्रह करता है।
सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी इस फैसले की सराहना की है। मेरठ कॉलेज के एसोसिएट प्रोफेसर और दलित कार्यकर्ता सतीश प्रकाश का कहना है कि जेल मैनुअल में बदलाव केवल शुरुआत है। असली मुद्दा मानसिकता का है। जाति ग्रस्त समाज में जेल के अंदर और बाहर दोनों तरह से प्रभुत्व बना रहता है। सामाजिक इंजीनियरिंग बहुत जरूरी है। वकील और दलित कार्यकर्ता किशोर कुमार ने कहा कि जेल प्रशासन के लिए ‘दलित’ शब्द उन चीजों से अलग नहीं है जिन्हें वे ‘पारंपरिक पेशे’ कहते हैं, जैसे कि मैला ढोना, झाड़ू लगाना और सफाई करना।
कुछ जेल अधिकारियों ने कहा कि उनकी जेलों में ‘भेदभाव’ की अनुमति नहीं है। उत्तराखंड में डीआईजी (जेल) दधीराम मौर्य ने कहा कि हमारी जेलों में कोई जाति-आधारित कार्य नियुक्ति नहीं होती है। पिछले साल नवंबर में हमारे नए जेल मैनुअल के अनुसार इसे बंद कर दिया गया था।