जैन धर्म में अक्षय तृतीया का है अनंत महत्व : रजत जैन

अक्षय तृतीया से प्रारंभ हुई दान देने की परंपरा
अक्षय तृतीया के दिन भगवान आदिनाथ ने लिया था एक वर्ष पश्चात आहार
City24news/अनिल मोहनिया
नूंह । वैशाख शुक्ल पक्ष अक्षय तृतीया का जैन धर्म में अनंत महत्त्व है। ये पर्व समृद्धि व अनंत विकास का प्रतीक है। ये दिन साल के अत्यंत भाग्यशाली दिनों में से एक है । आज के दिन वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) ने लगभग एक वर्ष एक माह 10 दिन के पश्चात आहार ग्रहण किया था। सर्वजातीय सेवा समिति के उपाध्यक्ष रजत जैन ने उक्त जानकारी देते हुए बताया की भगवान आदिनाथ ने छह माह का उपवास (व्रत) रखा था । उपवास की समय अवधि पूर्ण होने के पश्चात तीर्थंकर आदिनाथ आहार लेने के लिए नगर में गए तो जनता को आहार देने की विधि का ज्ञान (जानकारी) नहीं था इस कारण से वह ज्ञान के अभाव में उन्हें हीरे जवाहरात आदि वस्तुएं देने का प्रयास किया लेकिन भगवान आदिनाथ में उन्हें ग्रहण नहीं किया इसी प्रकार सात माह एक 09 दिन का समय बिना आहार लिए ओर व्यतीत हो गया । जब भगवान हस्तिनापुर के समीप पहुंचे तो तब श्रेयांस कुमार ने रात्रि के पिछले प्रहर में सात स्वप्न देखे। सुवर्णमय सुमेरुपर्वत, कल्पवृक्ष, सिंह, बैल, सूर्य- चन्द्र, समुद्र एवं सातवें स्वप्न में अष्ट मंगल द्रव्य धारण कर सामने खड़े हुए व्यंतर देवों की मूर्तियां देखी । राजा सोमप्रभ को इन स्वप्नों को बताया तो राजा सोमप्रभ ने भी इनका फल बताते हुए कहा की आज अपने यहां कोई देव अवश्य आएंगे । रजत जैन ने बताया की भगवान आदिनाथ का एक वर्ष एक माह 10 दिन का समय व्यतीत हो जाने के पश्चात वे हस्तिनापुर राज्य पहुंचे। तो वहां उनके पुत्र वहां उनके पौत्र राजा सोमप्रभ व राजा श्रेयांस ने भगवान आदिनाथ के दर्शन किए तो इस भव से पहले ऋषभ देव वज्रजंध नाम के राजा थे राजा श्रेयांस का जीव उनकी रानी श्रीमती था। उस समय आकाश गमन करने वाले श्री मान् दमधर मुनिराज, सागरसेन मुनिराज के साथ वज्रजंघ के पड़ाव में पहुंचे तो राजा व रानी ने दोनों मुनियों का पड़गाहन कर नवधाभक्ति से आहार दान किया। उस आहार दान के प्रभाव से देवों ने पंचाश्चर्य किये।इस प्रकार आठ भव पहले जो रानी श्रीमती अपने पति के साथ आहार दान किया था उस भव का स्मरण हो गया। उन्हें अपने पूर्व भव में मुनिराज को दिए गए आहार का स्मरण हो गया। और उन्हें आहार देने की विधि का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया ।जिसके फलस्वरूप दोनों भाइयों ने रानियों सहित भगवान का पड़गाहन किया- हे भगवन् ़ नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु।अत्र तिष्ठ तिष्ठ तिष्ठ ।पुनः तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार कर उच्चासन पर विराजमान किया,चरण प्रक्षालन किये,अष्ट द्रव्य से पूजा की,विधिवत्.नमस्कार किया,अनंतर प्रासुक इछुरस लेकर बोले हे भगवन् । मन शुद्ध, वचन शुद्ध, काय शुद्ध आहार जल शुद्ध है, भोजन ग्रहण कीजिए।नवधाभक्ति के अनंतर भगवान ने दोनों हाथों से अंजली बनाई ।भगवान आदिनाथ के पौत्र राजा श्रेयांस ने अपने भाई सोमप्रभ ने रानियों के साथ भगवान आदिनाथ को ईख (गन्ना) का रस देकर पारायण कराया । वह दिन अक्षय तृतीया का दिन था। भगवान आदिनाथ ने एक वर्ष एक माह दस दिन के पश्चात पारायण किया । भगवान आदिनाथ ने आज के दिन ही दान का महत्व बताया। तभी से दान देने की परंपरा प्रारंभ हुई
धर्मतीर्थ व दानतीर्थ का प्रारंभ :- भगवान ऋषभदेव धर्मतीर्थ के प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर थे तो राजा श्रेयांस दान तीर्थ के प्रवर्तक प्रथम दातार बने। हस्तिनापुर नगर से ही दान तीर्थ की प्रवृत्ति प्रारंभ हुई भारत क्षेत्र में दान देने की प्रथा उसे समय से ही प्रचलित हुई।
अक्षय तृतीया पर दान देना पुण्य :- वैसे तो प्रत्येक दिन प्रत्येक समय व्यक्ति को दान देना चाहिए लेकिन अक्षय तृतीया के दिन दान देने का महत्व अत्यधिक बढ़ जाता है इस इस दिन व्यक्ति आहार दान विद्यादान कर कर विशेष पुण्यार्जन करते हैं।