2025 में अपनी ही कमजोरियों से जूझती रही कांग्रेस

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City24News/नरवीर यादव
फरीदाबाद
| साल 2025 भारतीय राजनीति में विपक्षी गठबंधन इंडिया के लिए आंतरिक टकराव, रणनीतिक भ्रम और नेतृत्व संकट का वर्ष बनकर उभरा। 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद जिस गठबंधन से यह अपेक्षा की जा रही थी कि वह एक सशक्त, वैकल्पिक राजनीतिक धारा के रूप में उभरेगा, वही 2025 में अपनी ही कमजोरियों से जूझता नजर आया। यह वर्ष विपक्ष के लिए न तो संगठनात्मक मजबूती लेकर आया, न ही वैचारिक स्पष्टता।

सबसे बड़ा और प्रतीकात्मक तथ्य यह रहा कि पूरे 2025 में इंडिया गठबंधन की एक भी औपचारिक बैठक नहीं हुई। किसी भी राजनीतिक गठबंधन के लिए बैठकें केवल औपचारिकता नहीं होतीं, बल्कि संवाद, समन्वय और साझा रणनीति का आधार होती हैं। बैठकों का न होना यह संकेत देता है कि गठबंधन नाम मात्र का रह गया है, जबकि ज़मीनी स्तर पर दल अपनी-अपनी राह चलने लगे हैं।
दिल्ली विधानसभा चुनावों में यह बिखराव खुलकर सामने आया, जब आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने गठबंधन तोड़कर अलग-अलग चुनाव लड़ने का फैसला किया। 2024 में लोकसभा चुनावों में सीमित तालमेल के बाद यह उम्मीद थी कि दिल्ली में विपक्ष एकजुट रहेगा, लेकिन आपसी अविश्वास और राजनीतिक अहंकार ने इस संभावना को खत्म कर दिया। नतीजा यह हुआ कि विपक्षी वोटों का विभाजन हुआ और इसका लाभ सीधे तौर पर भाजपा को मिला।

इसी तरह महाराष्ट्र में निकाय चुनावों के दौरान कांग्रेस ने एनसीपी (शरद पवार गुट) और शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) से अलग होकर अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। यह फैसला उस समय और भी चौंकाने वाला था, जब भाजपा के खिलाफ संयुक्त लड़ाई की बात बार-बार दोहराई जा रही थी। कांग्रेस का यह रुख उसके सहयोगियों के लिए संकेत था कि गठबंधन केवल सुविधा का मंच है, प्रतिबद्धता का नहीं।

बिहार में तस्वीर थोड़ी अलग दिखी। यहां विपक्षी महागठबंधन ने मिलकर चुनाव लड़ा, लेकिन आपसी फूट, नेतृत्व की खींचतान और समन्वय की कमी ने इसे अब तक की सबसे बड़ी हार दिला दी। टिकट वितरण से लेकर प्रचार की रणनीति तक, हर स्तर पर असंतोष और अविश्वास साफ नजर आया। यह हार इसलिए भी ज्यादा चर्चा में रही क्योंकि एकजुटता के बावजूद गठबंधन जनता के बीच एक स्पष्ट, विश्वसनीय विकल्प के रूप में खुद को पेश नहीं कर सका।

2025 में इंडिया गठबंधन के भीतर नेतृत्व को लेकर असमंजस लगातार गहराता गया। समय-समय पर यह मांग उठती रही कि गठबंधन का नेतृत्व केवल कांग्रेस के हाथों में न रहे। तृणमूल कांग्रेस ने इस मांग की खुलकर अगुवाई की, यह कहते हुए कि क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक ताकत और जनाधार को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
उधर, कांग्रेस की यह समस्या रही कि वह गठबंधन का नेतृत्व तो करना चाहती है, लेकिन उसके अनुरूप लचीलापन और सामूहिकता दिखाने में अक्सर विफल रहती है। यही कारण है कि उसके कई सहयोगी दल उसके रुख से इत्तेफाक नहीं रख पाए।
राहुल गांधी की भूमिका का विश्लेषण किया जाए तो 2025 उनके लिए भी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाने का वर्ष साबित हुआ। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में उनसे यह उम्मीद की जा रही थी कि वह महंगाई, बेरोजगारी, किसानों और मध्यम वर्ग से जुड़े जनहित के मुद्दों पर सरकार को घेरेंगे, लेकिन वह अधिकतर समय चुनाव आयोग पर निशाना साधने और संवैधानिक संस्थानों को कठघरे में खड़ा करने में व्यस्त नजर आए।

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