वंदे-मातरम्: विवाद नहीं, भारत की अस्मिता का अडिग स्तंभ

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मुकेश वशिष्ठ
City24News/नरवीर यादव
हरियाणा
| भारत की स्वतंत्रता का इतिहास केवल युद्धों, आंदोलनों और नेताओं की गाथाओं में सीमित नहीं है; यह उस सांस्कृतिक चेतना की अमर कहानी है जो विविधताओं से भरे इस देश को एक भावनात्मक सूत्र में जोड़ती है। इस चेतना की धड़कन में वंदे-मातरम् जैसा स्तोत्र है—एक गीत, जो केवल सुरों और शब्दों का संयोजन नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का स्वर है। इसलिए जब कभी इसे विवाद का विषय बनाया जाता है, तो वह बहस स्वाभाविक नहीं, बल्कि कृत्रिम प्रतीत होती है इतिहास, तर्क और राष्ट्रीय भावनाओं, तीनों के प्रतिकूल।
भारत की आज़ादी किसी एक समुदाय या राजनीतिक विचारधारा की संपत्ति नहीं थी। 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर ने यह स्थापित कर दिया था कि भारत की आत्मा किसी एक मजहब या समूह में सीमित नहीं। हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई—सभी ने मिलकर अंग्रेज़ी शासन की जड़ों को हिलाया। यह वह क्षण था जब भारत ने पहली बार एक स्वर में कहा—“राष्ट्र प्रथम।’’
वंदे-मातरम् का उदय इसी भावभूमि पर हुआ। यह उस अखंड चेतना की अभिव्यक्ति थी जिसे न कोई धार्मिक ठप्पा प्रभावित कर सकता था और न कोई राजनीतिक विभाजन।
यह राष्ट्रीय चेतना केवल 19वीं सदी का उत्पाद नहीं थी। मार्च 1527 में राजा हसन खां मेवाती ने महाराणा सांगा के साथ 12,000 मेवाती योद्धाओं के साथ विदेशी आक्रांता बाबर के विरुद्ध अपने प्राण न्यौछावर किए। इस बलिदान का महत्व केवल इतना नहीं कि यह युद्ध में वीरता का उदाहरण था; यह इस राष्ट्रीय सत्य का प्रमाण था कि भारतीयता की अवधारणा सदियों से धार्मिक पहचान से ऊपर रही है।
यह प्रसंग दिखाता है कि “राष्ट्र” की भावना भारत में किसी आधुनिक राजनीतिक संरचना की देन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक निरंतरता का परिणाम है।
भारत की यह एकता ब्रिटिश शासन के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी।
अंग्रेज़ों की Divide and Rule नीति का पहला बड़ा प्रयोग 1905 का बंग-भंग था—एक धर्माधारित विभाजन, जो बंगाल की प्राकृतिक, सांस्कृतिक और भाषिक एकता को तोड़ने का प्रयास था। लेकिन अंग्रेज़ों की यह चाल वंदे-मातरम् की प्रचंड शक्ति के आगे टिक नहीं सकी।बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की रचना धीरे-धीरे एक गीत नहीं, बल्कि एक जन-क्रांति बन गई। बंगाल से उठी यह लहर पूरे देश में फैल गई। वंदे-मातरम् देशभर में आंदोलन, बहिष्कार, सभाएँ और छात्र क्रांतियों का नारा बन गया। लाखों भारतीयों की इस एकजुटता के सामने अंग्रेजों को 1911 में बंग-भंग वापस लेना पड़ा। यह इतिहास का वह अध्याय है जो दर्शाता है कि राष्ट्रीय चेतना जब जागती है, तो साम्राज्य भी झुकने को मजबूर होते हैं।
यहीं से भारतीय राजनीति में वैचारिक दरारों की शुरुआत भी दिखने लगती है। कांग्रेस, जो स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख मंच थी, स्वयं आंतरिक मतभेदों और तुष्टीकरण की राजनीति से जूझने लगी। इसी पृष्ठभूमि में मोहम्मद अली जिन्ना ने वंदे-मातरम् को विवाद का मुद्दा बनाया, जबकि यह गीत दशकों से आजादी के आंदोलन का प्रधान नारा था। यह वह मोड़ था जब राजनीतिक स्वार्थों ने सांस्कृतिक राष्ट्रीयता को धूमिल करना शुरू किया।
इतिहास यह संकेत देता है कि यदि उस समय कांग्रेस नेतृत्व राष्ट्रहित को स्पष्ट रूप से प्राथमिकता देता, तो धार्मिक ध्रुवीकरण और आगामी विभाजन की त्रासदी शायद रोकी जा सकती थी।
स्वतंत्रता के बाद भी भारत की राजनीति इस प्रश्न से जूझती रही—
क्या सरकारों ने वास्तव में समुदायों के विकास को प्राथमिकता दी?
या फिर राजनीतिक लाभ के लिए उनकी भावनाओं का उपयोग किया? विश्लेषक बार-बार कहते रहे हैं कि मुस्लिम समाज की वास्तविक समस्याएँ शिक्षा, कौशल, उद्यम, औद्योगिक विकास, आधुनिकता
इन पर ध्यान देने के बजाय उन्हें बार-बार भावनात्मक मुद्दों में उलझाया गया। इसी राजनीतिक calculus के कारण वंदे-मातरम् को बार-बार विवादित करने की कोशिश होती रही, जबकि वास्तविकता यह है कि इस गीत का धर्म से कोई संबंध ही नहीं।
वंदे-मातरम् किसी धार्मिक पहचान का नहीं, मातृभूमि का गीत है—और मातृभूमि का कोई धर्म नहीं होता।
भारत का इतिहास गवाही देता है कि जब भी बाहरी या आंतरिक चुनौतियाँ सामने आईं, वंदे-मातरम् की राष्ट्रीय चेतना ने ही देश को मार्ग दिखाया है। यह गीत किसी मजहब को नहीं जोड़ता—यह भारत नामक भावना को जोड़ता है। इसे विवादित करने की कोशिशें न इतिहास बदल सकती हैं, न राष्ट्रीय स्मृति को मिटा सकती हैं।
आज का भारत विकास, समावेशन और आधुनिकता की ओर बढ़ना चाहता है। इस यात्रा में सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि तुष्टीकरण को स्थान न मिले, वास्तविक विकास केंद्र में आएं। विभाजन नहीं, एकता नैतिक मार्गदर्शक बने। वंदे-मातरम् इसी एकता का सबसे निर्भीक, सबसे विश्वासपूर्ण और सबसे पवित्र उद्घोष है। वंदे-मातरम् केवल गीत नहीं—राष्ट्र का नैतिक घोषणापत्र है। वंदे-मातरम् भारत की आत्मा है। इतिहास का स्मारक, स्वतंत्रता का गीत, और भविष्य की प्रेरणा।
यह उस भारत का प्रतीक है जो विविधताओं से बना है, परंतु अपनी राष्ट्रीय पहचान में एक है। इसे विवादित करने का प्रयास केवल राजनीति का खेल है, जबकि इसका वास्तविक अर्थ राष्ट्र की आत्मा से जुड़ा है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम इतिहास से सीखें और एक ऐसा भारत बनाएँ जहाँ विकास सर्वोपरि हो, और वंदे-मातरम् भारतीयता की शाश्वत ध्वनि—हमेशा सबको एकसूत्र में बाँधती रहे।

लेखक मुख्यमंत्री के मीडिया समन्वयक हैं।

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